● आज मुझे गर्व है कि मैं आदिवासी हूँ" -
"लौट आओ प्रकृति के आंचल में, वही सुरक्षा वही जीवन है और वही हमारा अस्त्तिव है"!
सूर्य की किरणें प्रकृति को ऊर्जा देती है ! वर्षा की बूंदे मुरझाई हुई पत्तियों में नया जीवन भर देती है! यह भूमि सबका भरण पोषण करती है !
पृथ्वी के साथ सभी ग्रह, सूर्य के दाँयी से बांयी ओर परिक्रमा कर रहे है !
प्रकृति में मौजूद हर वस्तु इसी ओर गतिशील है....चाहे वह किसी पेड़ पर चढ़ती हुई बेल हो या गर्भ में पल रहा नन्हा शिशु ! यह आश्चर्य की बात है कि आदिवासी पूर्वजो ने बहुत पहले ही प्रकृति के इस व्यवहार को समझ लिया था!
उन्होंने इन प्राकृतिक क्रियाओं पर गहराई से मनन किया और अपने सामजिक जीवन के हर पहलू में शामिल किया ! नृत्य, खेत मे हल चलाना हो या शादी के फेरे ! दाँयी से बांयी ओर गुर्णन आज भी प्रकृति से उनकी निकटता का परिचय देते है ! आदिवासी पूर्वजो ने प्रकृति की शक्तियों व प्राकृतिक आपदाओं को ध्यान में रखते हुए अपनी सामाजिक व्यवस्था भी उसी तरह कायम की ! घरो के बीच दूरी के अतिरिक्त समाज मे रस्म रिवाज हो या जंगल मे चारा भाजी लेने जाना, आज भी वे उम्र के अनुसार सभी एक दूसरे से निश्चित दूरी बनाकर कतार में चलते है ! यह व्यवस्था सेल्फ आइसोलेसन के साथ एक दूसरे के प्रति संम्मान की भावना भी बनाए रखती है !
इस व्यवस्था का कारण उनकी यह दूरदर्शिता रही होगी कि कभी प्राकृतिक आपदा या महामारी आने पर उनकी प्रजाति पूरी तरह नष्ट ना हो सके ! हम जानते है कि महामारी व प्राकृतिक आपदाओं के कारण ही कई सभ्यताएं नष्ट हुई है ! लेकिन आदिवासी आज भी विद्यमान है !
आदिवासियों के प्रकृति में विद्यमान पशु पक्षियों के साथ भी दोस्ताना सम्बन्ध रहे है ! अपने पशुओं को वे अपने साथ घर के भीतर एक कक्ष में स्थान देते है ! पशु पक्षियों के क्रिया कलाप,व्यवहार व हवाओ के रुख से प्रकृति के हाव भाव को समझ लेते है और उसी के अनुसार पूरे वर्ष की योजना बनाते है! किसी भी तरह की प्राकृतिक घटना होने पर सजग हो जाते है,ओर उससे निपटने का प्रयास करते है!
दुःखद बात यह है कि बुद्धिमान कहे जाने वाले कुछ लोग, आदिवासियों को प्रकृति की गोद से विमुख करना चाहते है ताकि प्रकृति के बहुमूल्य संसाधनों पर अपना अधिकार जमा सके ! प्रकृति की सहनशीलता अब चरम सीमा तक आ चुकी है !
वह खुद को संतुलित करना भी जानती है ! यदि अब भी हमने इसका दोहन बन्द नही किया तो परिणाम भयंकर भी हो सकते है...जिसकी शुरुआत शायद हो चुकी है !
आदिवासियों ने कभी प्रकृति पर आधिपत्य जमाने की कोशिश नही की ओर ना कभी किसी प्राकृतिक वस्तु का गलत इस्तेमाल नही किया ! बल्कि हमेशा उसे सहेज कर रखा ! वे प्रकृति का सम्मान करते है, बदले में प्रकृति उनकी रक्षा करती है !
आज वे बिना आवाज दिए हमे सन्देश दे रहे है कि "लौट आओ प्रकृति के आंचल में वही सुरक्षा वही जीवन है और वही हमारा अस्त्तिव है !
"मैं बचपन से शहरी माहौल में रही लेकिन जब अपने आदिवासी क्षेत्र में रहने का मौका मिला तो समाज के बारे में जिज्ञासा बढ़ी ओर मन मे कई सवाल उठ खड़े हुए,जिनका सटीक जवाब मुझे अपने पिता से मिला ! तब अपनी संस्कृति के प्रति सम्मान और अधिक बढ़ गया !
आज मुझे गर्व है कि मैं आदिवासी हूँ"
डॉक्टर सुनीता घोघरा (पाल देवल, घोघरा फला) डूंगरपुर, राजस्थान।