कोरोना ने गरिबों को दिखाया नया भारत, एक देश भिन्नता अनेक, सीर पर आशियाना रखे निकले पैदल घरों की ओर..
◆ रोटी एक देते है साथ में 10 महोदय फोटो क्लिक करके ट्वीटर, फेसबुक, टीवी, मीडिया में हर जगह मौजूद
आशा के साथ लिख रहा हूं की 24 मार्च 2020 की गत रात्रि से आप और हम दोनों एक ही आदेश का पालन कर रहे है, लेकिन जमीन पर इसका अनुपालन बिल्कुल भिन्न सलीके से हो रहा है। मैं अपने घर से दूर तुम्हारे लिए, तुम्हारी सुख सुविधाओं के लिए बरसो से रहता आया हूं। तुम्हारी बहुमंजिला इमारतों के किसी छोटे से कोने को अपना आसरा बनाकर पापी पेट की भूख मिटाते रहा हूं...
और हां हर जगह ये आसरा भी नहीं मिलता हैं, तो में जुगाड से छोटी-छोटी सी जगहों में सिर छुपाता रहा हूं। मैं तो इसी जगह को अपना घर बार समझता था, एक झटके में सब कांच की तरह टूट कर बिखर गया। इस महामारी ने तुम्हारे मेरे बीच की कड़ी को भी उजागर कर दिया।
मैं फिर निकल पड़ा अपने सिर पर किस्मत की गठरी लिए वापस अपने गांव की ओर पैदल पैदल। मैं जानता था कि तेरे यहां मेरी कदर नहीं होगी। 56 इंच के सीने में हमारे लिए तिनके भर की जगह नहीं है ना ही रत्ती भर दया।
जब तुम बड़े बड़े हवाई जहाजों से मिलो दूर उड़ान भर के इंडिया वाले लोगों को ला रहे थे, तो मैंने भी थोड़ी सी उमिद की थी कि हमारा भी ख्याल रखा जाएगा। तुम चाइना, दुबई ओर पता नहीं कहां कहां गए खबरे देख कर बस आशा कर रहा था, लेकिन हुआ कुछ नहीं। और जो 70 बरसों से नहीं हुआ वो आज केसे हो सकता हैं तुम तो अपने घरों में अपने बीबी बच्चो के साथ आज भी वैसे ही जी रहे हो जैसे जीते आए हो। और हम जो तकलीफे उठाते आए हैं वो वैसी ही है इन कुरांटाइन सेंटरों में।
रोज एक समय का खाना मिल जाता हैं जिंदा रहने के लिए, जितना प्रसाद मिलता है मंदिरों में उतना। मैं भी अपने घर जाना चाहता हूं अपने लोगो के बीच की भर पेट खा सकु, थोड़ा मुस्करा सकू। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है जैसे तुम डर गए हो की में चले जाऊंगा तो वापस ना आवू।
◆ जैसे रामू निकला था दिल्ली से अपने घर के लिए, नहीं पहुंच पाया पैदल पैदल, तोड़ दिया दम रास्ते में।
◆ 12 साल की जीत मड़कामी ने मिलो सफर तय कर लिया था बचा था मात्र 13 km का सफर, पर हार गई ओर दम तोड़ा दिया।
◆ गौरव भी पटना के लिए मथुरा से लगातार अपने परिवार के साथ 23 दिन तक पैदल चलता रहा।
मिल जाती थोड़ी सी मदद समय रहते तो ये जाने बच जाती, पर किस्मत इनकी अच्छी कहा है। जिंदगी सस्ती जो है भारत वालो की। इंडिया वालो के सामने। कड़वा सच है ये स्वीकार करना।
कोटा से अपने भविष्य को निकालने के लिए सैकड़ों बसे पहुंच जाती है और ये चंद मीडिया वाले इसको एक सही कदम बताते है लेकिन जैसे ही हम लोगों को घर पहुंचाने के लिए प्रशांत भूषण जैसे कुछ सज्जन लोग आवाज उठाते है तो कोहराम मच जाता है कि corona फेल जाएगा। ऐसे लगता है जैसे हम ही इसके वाहक है।
पराए शहर में, मैं शायद अब लोट कर ना आवुं डर लगता है साहब ये आम और खास वाले तौर तरीकों से।
तुम सच देख कर अनदेखा कर देते हों, रोटी एक देते है साथ में 10 महोदय फोटो क्लिक करके ट्वीटर, फेसबुक, टीवी, मीडिया में हर जगह मौजूद कर देते हों।
नहीं चाहिए कुछ और बस घर जाने का कुछ बंदोबस्त कर दो। अब सब्र नहीं होता ।
तुम्हारा भारत।
-राजू पंवार, स्वतंत्र अभिव्यक्ति।