टंट्या कैसे बने राबिनहुड, जननायक टंट्या भील शहादत दिवस विशेष


देवास। सन् 1842 खंडवा जिले की पंधाना तहसील के बडदा में भाऊसिंह के घर आदिवासी महानायक का जन्म हुआ था।  जो अन्य बच्चों से दुबला-पतला था। निमाड में ज्वार के पौधे को सूखने के बाद लंबा, ऊँचा, पतला होने पर 'तंटा' कहते है इसीलिए 'टंट्या' कहकर पुकारा जाने लगा।


         टंट्या मामा की माँ बचपन में उसे अकेला छोड़कर स्वर्ग चली गई। भाऊसिंह ने बच्चे के लालन-पालन के लिए दूसरी शादी नहीं की। पिता ने टंट्या मामा को लाठी-गोफन व तीर-कमान चलाने का प्रशिक्षण दिया। टंट्या मामा ने धर्नुविद्या में दक्षता हासिल कर ली, लाठी चलाने और गोफन कला में भी महारत प्राप्त कर ली। युवावस्था में उसे पारिवारिक बंधनों में बांध दिया गया। कागजबाई से उनका विवाह कराकर पिता ने खेती-बाड़ी की जिम्मेदारी उसे सौप दी। टंट्या मामा की आयु तीस बरस की हो चली थी, वह गाँव में सबका दुलारा था, युवाओं का अघोषित नायक था। उसका व्यवहार कुशलता और विन्रमता ने उसे लोकप्रिय बना दिया था।


      बंजर भूमि में फसल वर्षा पर निर्भर होती है। प्राकृतिक प्रकोप, अवर्षा से बुरे दिन भी देखना पड़ते थे। अन्नदाता किसान भी भूखा रहने को मजबूर हो जाते थे। टंट्या मामा को भी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा। पिता भी ऐसे समय नहीं रहे, भूमि का चार वर्ष का लगान भी बकाया हो गया। मालगुजार ने उसे भूमि से बेदखल कर दिया।  खाने की दिक्कत आने लगी। ऐसे वक्त उसे 'पोखर' की याद आई, जहां उनके पिता भऊसिंह के मित्र शिवा पाटिल रहते थे और जिन्होंने सम्मिलित रूप से जमीन खरीदी थी, जिसकी देखरेख शिवा पाटिल करते थे। शिवा पाटिल ने टंट्या मामा का आदर-सत्कार तो किया, परन्तु भूमि पर उसके अधिकार को मंजूर नहीं किया। शिवा के मुकरने के बाद टंट्या मामा बडदा पंहुचा। मकान, बेलगाडी बेचकर कुछ नकद राशि जुटाई। खंडवा न्यायालय में शिवा की धोखाधड़ी के खिलाफ कार्यवाही की, इसमें भी पराजित होना पड़ा। झूठे साक्ष्यो के आधार पर शिवा की विजय हुई।


      हालातों से लड़ने के लिए, टंट्या मामा ने रोद्र रूप धारण कर लिया। लाठी से शिवा के नौकरों की पिटाई करके खेत पर कब्ज़ा कर लिया। उसने पुलिस में टंट्या मामा के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई। पुलिस ने गिरफ्तार करके मुकदमा कायम किया, जिसमें उसे एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गयी। जेल में बंदियों के साथ अमानुषिक व्यवहार होता देख टंट्या मामा विक्षुब्ध हो गया, उसके मन में विद्रोह की भावना बलवती होने लगी। जेल से छूटने के बाद पोखर में मजदूरी करके जीवन निर्वाह करने लगा, किन्तु वहा भी उसे चैन से जीने नहीं दिया गया। कोई भी घटना घटती तो टंट्या मामा को उसमें फसा देने षड्यंत्र रचा जाता। पोखर के बजाय उसने हीरापुर में अपना डेरा जमाया, वहां चोरी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। बिजानिया भील और टंट्या मामा ने तलवार से कई सिपाहियों को घायल कर दिया, इस प्रकरण में उसे तीन माह की सजा हुई। बडदा-पोखर के बाद झिरन्या गाँव (खरगोन) में टंट्या रहने लगा। एक अपराधी ने चोरी के मामले में उसका नाम ले लिया, फिर से पुलिस उसे खोजने लगी। टंट्या मामा ने बदला लेने का संकल्प लिया, उसने साहुकारो-मालगुजारो से पीड़ित लोगों का गिरोह बनाया जो लूटपाट और डाका डालता था। 
30 जून, 1876 को हिम्मतसिंह जमीदार के यहाँ धावा बोला गया, हिम्मतसिंह को गोली मार दी गई। टंट्या मामा को षडयंत्र में फसाकर उसके विश्वासपात्र साथियों के साथ गिरफ्तार करवा दिया गया। 
20 नवम्बर, 1878 को खंडवा की अदालत में दौलिया और बिजौनिया के साथ पेश किया गया।
    
      टंट्या की शोहरत उस समय बुलंदी पर थी, उसे देखने के लिए सैकडो भील जमा हो गए। हिम्मत पटेल ने टंट्या मामा के खिलाफ गवाही दी, जिसे कोर्ट में टंट्या मामा ने धमकाया। उसे खंडवा जेल में रखा गया, जहां से उसने फरार होने की योजना बनाई। 24 नवम्बर, 1878 की रात में बीस फीट ऊँची दीवार फांदकर वह 12 साथियों के साथ जंगल की दिशा में भाग गया।


        टंट्या मामा एक गाँव से दूसरे गाँव घूमते रहे। लोगों के सुख-दुःख में सहयोगी बनने लगे। गरीबों की सहायता करना, गरीब कन्याओं की शादी कराना, निर्धन व असहाय लोगो की मदद करने से 'टंट्या मामा' सबका प्रिय बन गया। वह शोषित-पीड़ित भीलों का रहनुमा बन गया, उसकी पूजा होने लगी।


       राजा की तरह उसका सम्मान होने लगा। सेवा और परोपकार की भावना में उसे 'जननायक' बना दिया। उसकी शक्ति निरंतर बढ़ने लगी। युवाओं को उसने संगठित करना शुरू कर दिया। टंट्या मामा का नाम सुनकर साहूकार कांपने लगे थे।


       पुलिस ने टंट्या मामा को गिरफ्तार करने के लिए विशेष दस्ता बनाया, जिसमे दक्ष पुलिस वालों को रखा गया। टंट्या पुलिस ने कई जगह छापे मारे, किन्तु टंट्या पकड़ में नहीं आया।
 सन 1880 में टंट्या मामा ने अंग्रेजी हुकूमत को हिला दिया, जब उसने चौबीस गाँवों में डाके डाले, भिन्न-भिन्न दिशाओं और गाँवों में डाके डाले जाने से टंट्या मामा की प्रसिद्धि चमत्कारी महापुरुष की तरह हो गई।


       डाके से प्राप्त जेवर, अनाज, कपडे वह गरीबो को दे देता था। पुलिस ने टंट्या के गिरोह को खत्म करने के लिए उसके सहयोगी बिजानिया को पकडकर फांसी दे दी, जिससे टंट्या की ताकत घट गयी।


      टंट्या मामा को गिरफ्तार करने के लिए इश्तिहार छापे गए, जिसमे इनाम घोषित किया गया। टंट्या मामा को पकडने के लिए इंग्लेंड से आए नामी पुलिस अफसर की नाक टंट्या मामा ने काट दी। सन 1888 में टंट्या मामा पुलिस और मालवा भील करपस भूपाल पल्टन ने उसके विरुद्ध सयुक्त अभियान चलाया। टंट्या मामा का प्रभाव मध्यप्रांत, सी-पी क्षेत्र, निमाड़, धार, खानदेश, होशंगाबाद, बैतुल, महाराष्ट्र के पर्वतीय क्षेत्रों के अलावा मालवा के पथरी क्षेत्र तक फ़ैल गया। टंट्या मामा ने अकाल से पीड़ित लोगों को सरकारी रेलगाड़ी से ले जाया जा रहा अनाज लूटकर बटवाया। टंट्या मामा के रहते कोई गरीब भूखा नहीं सोयेगा, यह विश्वास भीलो में पैदा हो गया था।


         टंट्या मामा ने अपने बागी जीवन में लगभग चार सौ डाके डाले और लुट का माल हजारों परिवारों में वितरित किया। टंट्या मामा अनावश्यक हत्या का प्रबल विरोधी था। जो विश्वासघात करते थे, उनकी नाक काटकर दंड देता था। टंट्या का कोप से कुपित अंग्रेजों और होलकर सरकार ने निमाड में विशेष अधिकारियों को पदस्थ किया। जाबाज, बहादुर साथियों-बिजानिया, दौलिया, मोडिया, हिरिया के न रहने से टंट्या मामा का गिरोह कमजोर हो गया।


     पुलिस द्वारा चारो तरफ से उसकी घेराबंदी की गई। भूखे-प्यासे रहकर उसे जंगलो में भागना पड़ा। कई दिनों तक उसे अन्न का एक दाना भी नहीं मिला। जंगली फलो से गुजर करना पड़ा। टंट्या मामा ने इस स्थिति से उबरने के लिए बनेर के गणपतसिंह से संपर्क साधा, जिसने उसकी मुलाकात मेजर ईश्वरी प्रसाद से पातालपानी (महू) के जंगल में कराई, किन्तु कोई बात नहीं बनी।


       11 अगस्त 1896, को श्रावणमास की पूर्णिमा के पावन पर्व पर जिस दिन रक्षाबंधन मनाया जाता है, गणपत ने अपनी पत्नी से राखी बंधवाने का टंट्या मामा से आग्रह किया। टंट्या मामा अपने छह साथियों के साथ गणपत के घर बनेर गया। आवभगत करके गणपत साथियों को आँगन में बैठाकर टंट्या मामा को घर में ले गया, जहां पहले से ही मौजूद सिपाहियों ने निहत्थे टंट्या मामा को दबोच लिया। खतरे का आभास पाकर साथी गोलियां चलाकर जंगल में भाग गए। टंट्या मामा को हथकड़ीयों और बेड़ियों में जकड दिया गया। कड़े पहरे में उसे खंडवा से इंदौर होते हुए जबलपुर भेजा गया। जहां -जहां टंट्या मामा को ले जाया गया, उसे देखने के लिए अपार जनसमूह उमडा। 19 अक्टूम्बर, 1889 को टंट्या मामा को फांसी की सजा सुनाई गयी।


        द न्यूयार्क टाइम्स के 10 नवंबर, 1889 के अंक में टंट्या भील की गिरफ्तारी की खबर प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी। इसमें टंट्या भील को इंडिया का रॉबिनहुड बताया गया था। टंट्या भील अंग्रेजों का सरकारी खजाना और अंग्रेजों के चाटूकारों का धन लूटकर जरूरत मंदों और गरीबों में बांट देते थे। वह गरीबों के मसीहा थे। वह अचानक ऎसे समय लोगों की सहायता के लिए पहुंच जाते थे, जब किसी को आर्थिक सहायता की जरूरत होती थी। वह गरीब-अमीर का भेद हटाना चाहते थे। वह छोटे-बड़े सबके मामा थे। टंट्या भील को टंट्या मामा के नाम से भी जाना जाता है।


      1857 की क्रांति के बाद टंट्या भील अंग्रेजों को चुनौती देने वाला ऐसा जननायक था, जिसने अंग्रेजी सत्ता को ललकारा। पीडितों-शोषितों का यह मसीहा मालवा-निमाड में लोक देवता की तरह आराध्य बना, जिसकी बहादुरी के किस्से हजारों लोगो की जुबान पर थे। 
बारह वर्षों तक भीलों के एकछत्र सेनानायक टंट्या के कारनामे उस वक्त के अखबारों की सुर्खिया होते थे। गरीबों को जुल्म से बचाने वाले जननायक टंट्या का शव उसके परिजनों को सौपने से भी अंग्रेज डरते थे। टंट्या को फांसी दी गयी या गोली मारी गई, इसका कोई सरकारी प्रमाण नहीं है, किन्तु जनश्रुति है कि पातालपानी के जंगल में उसे गोली मारकर फेक दिया गया था। जहां पर इस 'वीर पुरुष' की समाधि बनी हुई है, वहां से गुजरने वाली ट्रेन रूककर सलामी देती है। सैकडो वर्षों बाद भी 'टंट्या भील' का नाम श्रद्धा से लिया जाता है। अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ बगावत करने वाले टंट्या का नाम इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरो से अंकित है।


       टंटया  मामा अपने दल में हमशक्ल रखता था। पुलिस को परेशान करने के लिये टंटया एक साथ पांच-छह विपरीत दिशाओं में डाके डलवाता था। विंध्याचल- सतपुड़ा- अरावली पर्वतीय श्रृंखला मप्र, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात के बांसवाड़ा, भीलवाड़ा, डूंगरपुर, होशंगाबाद, बैतूल, खण्डवा, खरगोन, बड़वानी, धार, अलीराजपुर, झाबुआ, छोटा उदयपुर, दाहोद आदि में टंटया भीलों का नायक था। लूटमार करके वह होलकर रियासत राज्य में जाकर सुरक्षित हो जाता था। पुलिस खोजती रहती पर उसे पकड़ने में असमर्थ रहती। यह भील क्रांतिकारी जो कुछ भी वह लूटता उसे अंग्रेजों के विरुद्ध ही उपयोग में लाता था। आदिवासियों के इन विद्रोहों की शुरुआत प्लासी युद्ध (1757) के ठीक बाद ही शुरू हो गयी थी और यह संघर्ष बीसवीं सदी की शुरुआत तक चलता रहा।


'लोक संवेदना दस्तक' एवं 'BIRSA Live' मीडिया समूह की ओर से निमाड़ के राबिनहुड महानायक 'टंट्या मामा' को सत् सत् नमन ।