भीमा नायक की 143 वीं पुण्य तिथि 29 दिसंबर को, दो दिवसीय आयोजन, तात्या टोपे और भीमा नायक की मुलाकात का साक्षी है निमाड़

BARWANI : 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के राष्ट्रीय नायकों में सम्मिलित तात्या टोपे निमाड़ आये थे। उनकी मुलाकात निमाड़ के योद्धा भीमा नायक से हुई थी। इस मुलाकात का साक्षी हमारा निमाड़ क्षेत्र है। 29 दिसम्बर को उनकी 143 वीं पुण्यतिथि है। उन्होंने अंग्रेजों से जमकर टक्कर ली थी। ये बातें शहीद भीमा नायक शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बड़वानी के स्वामी विवेकानंद कॅरियर मार्गदर्षन द्वारा आयोजित दो दिवसीय कार्यक्रम के प्रथम दिन कॅरियर काउंसलर डॉ. मधुसूदन चौबे ने कहीं। यह आयोजन प्राचार्य डॉ. आर. एन. शुक्ल के मार्गदर्षन में किया गया। कार्यकर्ता प्रीति गुलवानिया ने बताया कि दो दिनों में विद्यार्थियों को भीमा नायक जी के इतिहास से अवगत करवायेंगे। रविवार को भी आयोजन होगा। विद्यार्थीगण आयुषी पाटीदार और सुरेष नावडे ने उनके चित्र का पूजन अर्चन किया तथा सभी विद्यार्थियों ने उनके योगदान को सलाम किया।
डॉ. खरे और डॉ. यादव ने किया अनुसंधान
ज्ञातव्य है कि इतिहासकार और अवधेष प्रतापसिंह विष्वविद्यालय, रीवा के पूर्व कुलपति डॉ. षिवनारायण यादव ने सर्वप्रथम भीमा नायक पर अनुसंधान किया था। उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक के आधार पर भीमा नायक की उपलब्धियां ज्ञात हुई हैं। इतिहास विभाग की पूर्व अध्यक्षा और इतिहासकार डॉ. पुष्पलता खरे ने भीमा नायक का मृत्यु प्रमाण-पत्र खोजा था और उन्हीं के जरिये हम सभी को भीमा नायक जी को ज्ञात हुआ कि भीमा नायक का देहावसान 29 दिसम्बर, 1876 को कालापानी की सजा भुगतते हुए अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में हुआ था। डॉ. खरे की खोज की वजह से ही हम उनकी पुण्यतिथि मना पा रहे हैं।
यह था योगदान
कॅरियर काउंसलर और इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. मधुसूदन चौबे ने भीमा नायक का इतिहास बताते हुए कहा कि 1857 में भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 1857 से 1867 तक दस वर्ष सतत् संघर्ष किया। भीमा नायक और अंग्रेजों के मध्य जो लड़ाइयां हुई, उनमें 24 अगस्त, 1857 को पंचसावल की लड़ाई,  11 अप्रैल, 1858 की अंबापानी की लड़ाई, 4 फरवरी, 1859 की धाबाबावड़ी की लड़ाई, 09 फरवरी, 1859 की पंचबावली (रामगढ़) की लड़ाई उल्लेखनीय हैं।
लालची ने दिया धोखा
डॉ. चौबे ने बताया कि भीमा को अंग्रेज दस वर्ष तक पकड़ नहीं पाये थे। अंग्रेजों ने भीमा को पकड़वाने के लिए प्रारंभ में पांच सौ रुपये के ईनाम की घोषणा की। पांच सौ से बढ़ाकर पहले इसे एक हजार और अंततः दो हजार रुपये कर दिया गया। उस समय के लिहाज से यह राषि बहुत बड़ी थी। लालच में आकर चंदर पिता गुलाब ने भीमा के बालकुआं में होने की सूचना अंग्रेजों को दे दी। वहां से अंग्रेजों ने भीमा को 2 अप्रैल, 1867 को गिरफ्तार कर लिया। संचालन प्रीति गुलवानिया ने किया। आभार कोमल सोनगड़े ने व्यक्त किया। सहयोग रवीना मालवीया, जितेंद्र चौहान, ग्यानारायण शर्मा, अजय पाटीदार ने किया।